द्रश्य की शुरुआत एक बंगले की चारदीवारी में होती है .जिस के लोन में एक झुला टंगा है,जिस पर एक लड़की बैठी है.जो अपने -आप में खोई हुई -सी एक कविता पढ़ रही है,उस की कविता पढनेकी लय में भावानुकूल लगातार परिवर्तन हो रहा है,कभी उसका स्वर इतना उंचा हो जाता है कि उसे चार-दिवारी के बाहर भी सुना जा सकता है - तो कभी बहुत धीमे स्वर में-
वह कविता पढ़ रही है-
वह कविता पढ़ रही है-
एक पल का साथ अपना ,
गम अगर लो बाँट अपना ,
तो दिलों को बोझ भी का बहुत हल्का लगेगा,
फिर दिलों को गैर भी अपना लगेगा,
और अगले पल बिछुड़ना भी पड़ेगा .
...याद आयेगी तुम्हारी फिर अकेले में .....(उसकी आवाज रुंध जाती है ,मगर फिर भी पढने का प्रयास करती है )
रो पड़ेंगी यूँ ही आँखें फिर अकेले में .
रोकने पर हिल्कियाँ तो आ ही जाएँगी ......(उस की आवाज निरंतर भारी सी होती जा रही है)
मगर तुम्हारी यादें तो .. हैं .
जो रह ही जाएँगी........और हमेशा याद आएँगी/"
रोकने पर हिल्कियाँ तो आ ही जाएँगी ......(उस की आवाज निरंतर भारी सी होती जा रही है)
मगर तुम्हारी यादें तो .. हैं .
जो रह ही जाएँगी........और हमेशा याद आएँगी/"
पढ़ते -पढ़ते ज्योति की आँखें आंसुओं से लबा-लब भरीं थी.आवाज पूरी तरह भारी और दर्द से भरी थी . व्याकुलता स्वर से और भावों से साफ़ झलक रही थी.व्याकुलता विरह-वेदना की.
"ओ अनिकेत! तुम कहाँ गए ?" उस की पलकें झपकीं तो आंसुओं का झरना फूट पड़ा .उसकी मन: स्थिति उसके चहरे से साफ़ पता चल रही थी.उसकी इसी स्थिति पहली बार ना हुई थी.अपितु जब भी वह अनिकेत की यह कविता पढ़ती तो उस की भावनाएं बेकाबू हो जातीं और वह इस विरह-वेदना को सहने की स्थिति में स्वयं को संभाल पाने असफल पाती.अनिकेत की यह कविता ज्योति के अतीत की यादों को जैसे जीवंत -सा कर देती.और वह अपने-आप को इस नश्वर जगत में निपट अकेला पाती.
"यह तुम क्या लिख दिया अनिकेत!"
" जो कविता तुम ने यों ही लिखी थी.आज वह अक्षरश: सत्य हो गयी,तुम्हें इस का भान शायद पहले से ही रहा होगा ?"
"क्या तुम भी मेरी तरह अनुभव करते हो- विरह-वेदना को?"
कहते-कहते ज्योति अपने अतीत की यादों में चली गयी/
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Very interesting. Its something that make me read more and more .Keep uploading....
जवाब देंहटाएंTHANKS FOR VISITING
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